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ऐतिहासिकता और धर्मनिरपेक्षता को अपने आँचल में समेटे है श्रीनगर गढ़वाल

ऐतिहासिकता और धर्मनिरपेक्षता को अपने आँचल में समेटे है श्रीनगर गढ़वाल

सबसे तेज प्रधान टाइम्स                                                 

गबर सिंह भंडारी                                                     

श्रीनगर गढ़वाल। गढ़वाल हिमालय भारत में ही क्या समस्त विश्व में सबसे मनोहर और महानतम है।यहां के नयनाभिराम दर्शनीय स्थल सदैव ही पर्यटकों को आकर्षित करते आये हैं।ऐसा ही गढ़वाल हिमालय में एक स्थान है श्रीनगर गढ़वाल। नरी लाल निर्वेद ने बताया कि श्रीनगर प्राकृतिक रूप से जितना मनोहारी है सांस्कृतिक रूप से इसका इतिहास उतना ही महत्वपूर्ण है। ग्यारह बार उजड़ने  और बसने वाला श्रीनगर प्राचीन काल से ही गढ़वाल में राजनीति, कला,शिक्षा और संस्कृति का प्रमुख केंद्र रहा है ।पौराणिक आख्यानों के अनुसार हर युग में श्रीनगर का नाम बदलता गया और यह नगर तदानुसार अपने को भी बदलता गया।

श्रीयंत्र सतयुग में सत्यसंघ राजा यहां राज करते थे। जब कोलासुर नाम के दैत्य से सब राजा हार गए तो उन्होंने श्रीयंत्र शिला पर विधिवत पूजा अर्चना की।तदुपरांत भगवती महामाया  दुर्गा ने दर्शन देकर राजा सत्यसंघ को बहुशक्ति प्रदान की। जिससे राजा ने युद्ध में तुरंत कोलासुर दैत्य का वध कर दिया । कालांतर में श्रीनगर के आस पास यह धारणा पैदा होती गयी कि जो भी प्रातः श्रीयंत्र पर नजर डालेगा  वह वहीं मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। कहते हैं कि  कोटद्वार और पौड़ी होते हुए जब व्यापारी श्रीनगर के ऊपर करैंखाल नामक स्थान पर आते थे  तो जैसे ही उनकी दृष्टि श्रीयंत्र पर पड़ती थी तो वे वहीं मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे । समय बीतने के साथ साथ आदिगुरु शंकराचार्य का श्रीनगर आगमन हुआ और उन्होंने इस किवदंती को सुना तो उन्होंने श्रीयंत्र के दुष्प्रभावों को समाप्त कर दिया और अपने मंत्रों की शक्ति से श्रीयंत्र को बीच नदी में ही पलट दिया । यह शिला आज भी अलकनंदा नदी के बीचोंबीच देखी जा सकती है और इसे ही श्रीयंत्र टापू भी कहते हैं।

अश्वतीर्थ पूर्वकाल में सूर्यवंशी नरिस्थान नाम का एक प्रतापी राजा था। उन दिनों अश्वमेध यज्ञ करने की प्रथा थी। राजा ने घोड़ा छोड़ दिया  ।राजा के प्रताप के डर से किसी को भी घोड़ा छूने की हिम्मत नहीं हुई। परन्तु राजा इन्द्र ने अपनी माया से घोड़े को छिपा दिया।राजा को जब घोड़े का पता नहीं चला तो वह बड़ा बेचैन हो गया। राजपुरोहित के कहने पर राजा ने अलकनंदा तट पर भगवान विष्णु का तप किया और घोड़े का पता लगा लिया । तब से यह स्थान अश्वतीर्थ कहलाने लगा।

धनुष क्षेत्र श्रीनगर में अलकनंदा नदी धनुषाकार होकर बहती है इसलिए इसे धनुष क्षेत्र भी कहते हैं।

शंकर मठ विष्णु मंदिर की स्थापना यहां शंकर डोभाल ने की थी अतः यह क्षेत्र शंकर मठ भी कहलाता है।

कंसमर्दनी क्षेत्र

महामाया भगवती जो कंसमर्दनी के नाम से श्रीनगर में प्रतिष्ठित है इसलिए यह क्षेत्र कंसमर्दनी क्षेत्र कहलाता है।

नागेश्वर पूर्वकाल में नागगणों ने महादेव की तपस्या कर उनका सत्संग प्राप्त किया था। इसलिए इसे नागेश्वर के नाम से भी जाना जाता है।

नारद नगरी किवदंती है कि मुनि शीलनिधि की कन्या का स्वंयवर भी यहीं हुआ था ।नारद मुनि उस कन्या को देखकर उस पर मोहित हो गए और इसी नगरी में रहने लगे । इसलिए इसे नारद नगरी भी कहते हैं।

श्रीपुर यहीं चंड मुंड दैत्यों के संहार हुआ था ।महाभारत काल में यहां राजा सुबाहु की राजधानी थी ।उन दिनों श्रीनगर को श्रीपुर कहते थे।

ऐतिहासिक रूप से श्रीनगर का सर्वप्रथम उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी पुस्तक में ब्रह्मपुर के नाम से किया है।पुराने जमाने में यहां गढ़वाली नामक राज्य था।और राजा सोमपाल ने अपनी इकलौती पुत्री का विवाह धारा नगर के पंवार वंशज राजा कनकपाल से कर दिया। और दहेज में इन्हें चांदपुर दे दिया। इन्हीं के वंशज तत्कालीन राजा अजयपाल ने श्रीयंत्र से प्रभावित होकर अलकनंदा के तट पर खुला  और लंबा चौड़ा स्थान देखकर सन1517 में चांदपुर से देवलगढ़ और फिर अपनी राजधानी श्रीनगर स्थानांतरित कर दी।पंवार शासनकाल में यहां अनेक भव्य मंदिरों और मठों का निर्माण किया गया । अभी तक श्रीनगर में 31 मंदिर और मठों का पता चला है। बहरहाल राजा अजयपाल द्वारा बसाया गया यह सुंदर नगर 25 अगस्त 1894 को गौणताल ,विरहिताल के टूटने और परिणामस्वरूप यहां की प्रमुख नदी अलकनंदा में आई प्रलयंकारी बाढ़ से यह नगर नष्ट हो गया। बाढ़ आने के बाद यहां महामारी फैल गयी ।और फिर भूकंप आने के बाद यहां का पुरातन बाजार भी लुप्त हो गया।सन1803 से 1815 तक यहां गोरखाओं के आक्रमण का काल रहा।और श्रीनगर सहिय समस्त गढ़वाल गोरखाओं के अधीन हो गया । तत्पश्चात महाराजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की मदद लेकर 1815 में गोरखाओं को गढ़वाल से खदेड़ दिया ।इसके एवज में गढ़वाल नरेश ने आधा गढ़वाल अंग्रेजों को भेंट कर दिया जो कि ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया।1815 से 1840 तक यह अंग्रेजों के अधीन हो गया। 1894 में अलकनंदा नदी की भीषण बाढ़ से उजाड़ बने श्रीनगर को तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर ए के पौ ने 1895 में श्रीनगर के पुनर्निर्माण के लिए कार्य करते हुए पुनः बसाने में मदद की। कहा जाता है कि वर्तमान श्रीनगर जयपुर के नक्शे  से लिया गया है और इसे इसी तरह बसाया गया है। श्रीनगर धार्मिक नगरी है इसके चारों दिशाओं में चार क्षेत्र पाल हैं। पूर्व दिशा में क्षेत्र पाल घसिया महादेव हैं ।पश्चिमी दिशा के क्षेत्र पाल कांडा गांव में हैं। दक्षिण दिशा के क्षेत्र पाल अष्टावक्र शिव हैं जो खोला गावँ में हैं । जबकि उत्तर दिशा में क्षेत्र पाल माणिक नाथ जी का मंदिर है।श्रीनगर की श्री में इस तरह उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गयी  और सिक्खों के दसवें गुरु  अपनी फौज के साथ यहां आए और गुरुद्वारे की स्थापना हेतु कार्य किया। तत्पश्चात हेमकुण्ड साहिब के अध्यक्ष श्री गुरुबख्श सिंह बिंद्रा ने सन 1967में यहां गुरुद्वारा की स्थापना की । यहां दिगंबर मुनि द्वारा जैन मंदिर की स्थापना की गई जो कि अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। आज श्रीनगर उत्तराखंड में शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन चुका है। यहाँ हेमवतीनंदन बहुगुणा केंद्रीय गढ़वाल विश्विद्यालय, राजकीय पॉलिटेक्निक, महिला औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान ,औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान पुरुष ,एन आई टी,एवम मेडिकल कॉलेज यहां मौजूद हैं। यहां अध्ययन करने के लिए पूरे देश से विधार्थी आते हैं। श्रीनगर आज उत्तराखंड की केन्द्रस्थली एवम हृदय स्थली  कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

समुद्र तल से ऊँचाई

श्रीनगर समुद्रतल से लगभग 575 मीटर ऊँचाई पर स्तिथ है।

श्रीनगर के प्रमुख दर्शनीय स्थल

 श्रीनगर के प्रमुख धार्मिक एवम दर्शनीय स्थलों में माँ धारी देवी,कमलेश्वर मंदिर, गोरखनाथ गुफा मंदिर , केशोराय मठ, बदरीनाथ मठ लक्ष्मीनारायण मंदिर ,कंसमर्दनी पीठ   आदि हैं ।

प्रमुख होटल

 श्रीनगर के प्रमुख होटलों में राजहंस होटल,न्यू मेनका होटल ,देवलोक ,सम्राट, सिद्धार्थ होटल, प्राची होटल प्रमुख हैं।

 प्रमुख धर्मशालाएं 

श्रीनगर शिक्षा का केंद्र स्थल होने के साथ साथ  बद्रीनाथ केदारनाथ एवम हेमकुण्ड जाने वाले यात्रियों के लिए एक प्रमुख रात्रिस्थल भी है  यहाँ रात में ठहरने के लिए कई धर्मशालायें  भी हैं। कल्यानेश्वर धर्मशाला ,पुरानी काली कमली एवम डालमिया धर्मशाला मौजूद है। इसके अतिरिक्त यहां गढ़वाल मंडल विकास निगम का विशाल भवन भी है।हेमकुण्ड साहिब जाने वाले सिख यात्रियों के लिए यहां विशाल गुरुद्वारा भी मौजूद है।

हरिद्वार-ऋषिकेश से दूरी 

हरिद्वार से ऋषिकेश लगभग 24 किमी दूर है। और ऋषिकेश से श्रीनगर की दूरी लगभग 105 किलोमीटर है। श्रीनगर तक पहुंचने के लिए बस कार एवम निजी वाहनों से ही आया जा सकता है  । यहां रेलमार्ग की अभी सुविधा नहीं है।

मौसम 

श्रीनगर के चारों तरफ पहाड़ियां होने के कारण व इसके घाटी में बसा होने के कारण यहां का मौसम गर्म है।



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