ब्रेकिंग न्यूज़
1 . जीजीआईसी ज्वालापुर की छात्राओं ने किया शांतिकुंज व देसंविवि का शैक्षिक भ्रमण 2 . मतदान जागरूकता हेतु नुक्कड़ नाटक एवं रैली का आयोजन 3 . जल ही जीवन का आधार जल बिन सब बेकार-डॉ अनुपमा गर्ग 4 . मतदान जागरूकता हेतु मानव श्रृंखला एवं रैली का आयोजन 5 . श्री वैश्य बंधु समाज महिला विंग ने किया होली मिलन कार्यक्रम का आयोजन 6 . स्वर्गीय डॉक्टर नागेंद्र सिंह का 110वा जन्मदिन माल्यार्पण कर मनाया गया 7 . राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्साधिकारियों के पंचकर्मीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का शुभारंभ 8 . पूर्णाहुति के साथ महारूद्र यज्ञ का हुआ समापन,भक्तों की भारी भीड़ रही मौजूद 9 . पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की प्रवृत्ति संत की और भक्ति संघ की : डॉ. शैलेंद्र 10 . पूर्व ब्लाक प्रमुख नगीना रानी उत्तराखंड अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग की सदस्या मनोनीत 11 . शहर व्यापार मण्डल ने किया नवगठित इकाइयों का स्वागत 12 . मतदान जागरूकता के लिए छात्रोंओ ने निकाली रैली 13 . गुणवत्तापूर्ण कार्यों के साथ जनता के बीच जाना भाजपा की प्राथमिकता : आदेश चौहान 14 . रमजान का चांद नजर आते ही मस्जिदों में बढ़ी रौनक,अदा की जाएगी विशेष नमाज तरावीह 15 . संपूर्ण देश से 43 महिलाओं को अमृता शेरगिल महिला कलाकार सम्मान 2024 से सम्मानित किया गया 16 . महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी कांस्टेबल पूनम सौरियाल 17 . उत्तराखंड मेडिकल लैब टेक्नीशियन एसोसिएशन हरिद्वार का द्विवार्षिक अधिवेशन संपन्न 18 . विधायक आदेश चौहान की विधायक निधि से टिहरी विस्थापित कॉलोनी में शुरू हुआ सड़क निर्माण कार्य 19 . जांच में सिद्ध नहीं हुए साबिर पाक दरगाह प्रबंधक रजिया पर लगे आरोप,दोबारा संभाला पदभार 20 . नगर आयुक्त के समर्थन में आए निवर्तमान मेयर ने रूड़की विधायक पर लगाए भ्रष्टाचार के आरोप 21 . गुरु की भक्ति और शक्ति मुक्ति का आधार : संत बालकदास 22 . 220 किलो गौमांस के साथ गौकशी का आरोपी गिरफ्तार 23 . कार्यकर्ताओं से होती है पार्टी व पदाधिकारियों की पहचान : राजीव शर्मा 24 . विकास कार्यों के लिए नवोदय नगरवासियों ने जताया राजीव शर्मा का आभार 25 . आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा पार्षदों ने बनाई रणनीति 26 . रानीपुर विधायक ने शुरू कराया एक करोड़ से अधिक लागत की सड़क के पुनर्निर्माण का कार्य 27 . जीजीआईसी ज्वालापुर में 12वीं की छात्राओं को समारोहपूर्वक दी गई विदाई 28 . भाजपा शासन में जनता को मिल रहा सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ : राजीव शर्मा 29 . 18 फरवरी को स्वरोजगार नारी सम्मेलन आयोजित करेगा छनमन कैप चैरिटेबल ट्रस्ट 30 . उत्तराखंड विधानसभा से पास यूसीसी बिल पूरे देश को राह दिखाएगा : राजीव शर्मा 31 . उत्तराखंड विधानसभा से पास यूसीसी बिल पूरे देश को राह दिखाएगा : राजीव शर्मा 32 . निशुल्क चिकित्सा शिविर का सैकड़ों लोगों ने उठाया लाभ 33 . रुड़की में बारिश के साथ भारी ओलावृष्टि से बढ़ी ठंड 34 . सफाई कर्मचारियों की समस्याओं का समाधान नहीं कर रही सरकार : विशाल बिरला 35 . मसूरी शहर की विकास योजनाओं को लेकर कैबिनेट मंत्री गणेश जोशी ने ली बैठक 36 . राष्ट्र निर्माण में शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों की अहम भूमिका : स्वतंत्र कुमार 37 . श्री वैश्य बंधु समाज मध्य क्षेत्र हरिद्वार ने किया महाराज अग्रसेन स्मृति सम्मान समारोह का आयोजन 38 . भेल ओ.बी.सी.एसोसिएशन ने मनाई सावित्रीबाई फुले जयंती 39 . पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के विकास में जुटी केंद्र सरकार : अजय भट्ट 40 . ग्राम हरिपुर कलां में स्व.अटल बिहारी वाजपेयी को दी गई श्रद्धांजलि 41 . स्व.अटल बिहारी बाजपेयी व पं.मदन मोहन मालवीय को भाजपाइयों ने दी श्रद्धांजलि 42 . निवर्तमान पालिकाध्यक्ष राजीव शर्मा का जनता ने किया अभिनंदन 43 . लोक संस्कृति दिवस के रूप में मनाई गई स्व. इंद्रमणि बडोनी जयंती 44 . छात्राओं ने 100 किलो से अधिक सिंगल यूज प्लास्टिक नगर निगम रुड़की को सौंपा 45 . उत्तराखंड राज्य हज कमेटी का हज अधिकारी बनने पर मौहम्मद अहसान का भव्य स्वागत 46 . जन संघर्ष मोर्चा की बैठक में मोर्चा के पुनर्गठन पर हुई चर्चा 47 . एक ही स्थान पर कई पशु पक्षियों को देख मंत्र दुग्ध हुए विजडम स्कूल के बच्चे। 48 . श्रीनगर कोतवाली परिसर में पुलिसकर्मियों के आवासीय भवनों का लोकार्पण 49 . एसपी रेलवेज ने मासिक अपराध गोष्ठी व कार्मिक सम्मेलन में दिए निर्देश 50 . ग्राम पदार्था में विकसित भारत संकल्प यात्रा का आयोजन

एक समय जागेश्वर में शव साधना किया करते थे अघोरपन्थी

एक समय जागेश्वर में शव साधना किया करते थे अघोरपन्थी

बलवन्त सिंह रावत

सबसे तेज प्रधान टाइम्स



रानीखेत :--यमुनादत्त वैष्णव ‘अशोक’ की पुस्तक के अनुसार कुमाऊँ में रुहेला आक्रमणकारियों ने लगभग सभी मन्दिरों को लूटा और उनमें रखी हुई मूर्तियों को तोड़ा। जागेश्वर ही अपनी स्थिति के कारण एक ऐसा प्राचीन स्थल है जहाँ वे नहीं पहुँच पाये। जागेश्वर कुमाऊँ में समय-समय पर प्रचलित धर्मों का एक प्राकृतिक संग्रहालय है। यहाँ प्राप्त मूर्तियों में पौन राजा की मूर्ति मंगोल धर्म की है। शक्तिपीठ का श्रीयन्त्र आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित किया बताया जाता है। इस प्रकार दक्षिण भारत के केरल प्रदेश की द्राविड संस्कृति से लेकर मंगोलिया की बौद्ध या लामा संस्कृति तक के भू-भाग की मूतियां इस देवदारु वन में सुरक्षित हैं।


विभिन्न कालों की कुल मिलाकर लगभग पाँच सौ मूर्तियाँ यहाँ स्थित हैं । जो लगभग एक सौ पच्चीस मन्दिरों में या उनके बाहर स्थापित हैं । इन मन्दिरों और मूर्तियों से भी प्राचीन है पर्वत की हिरियाटोप नामक चोटी पर स्थित एक शिला और उसके निकट की अनेक अभिलिखित गुफाएँ।

यह शिला उस महापाषण स्टोन हैंज सभ्यता से सम्बन्धित है जिसके अवशेष देवीधरा, भटकोट, मिर्जापुर, दक्षिण भारत में ही नहीं भारत से बाहर इटली फ्रांस और ब्रिटेन में भी है।इसके बारे में न स्थानीय जनता को ओर न विदेशी विद्वान को इन दुर्लभ ऐतिहासिक वस्तुओं का ज्ञान है जो इस नन्हीं घाटी में ईश्वर की कृपा और मात्र धार्मिक भावना के बल पर सुरक्षित रही हैं। 


यहा पर पौन राजा नामक की मूर्ति जो अक्तूबर 1974 को मन्दिर के गोदाम से चुरा लिया गया था, और डेढ़ वर्ष बाद अमेरिका जाते जाते दिल्ली में केन्द्रीय गुप्तचर विभाग की पुरातत्व शाखा द्वारा एक होटल के कमरे से बरामद की गई थी, अष्टधातु की बनी वह मूर्ति को जागेश्वर संग्रहालय में आज देखी जा सकती है । यह वज्रयान के उस बौद्ध अथवा शैव पौन या बौन धर्म की है जो कभी हिमालय के दोनों ओर बसी किरात जाति का लोक धर्म था। यह मूर्ति सातवीं-आठवीं सदी ई. की है। इस काल की कांस्य मूर्तियाँ भारत के समूचे तिब्बती सीमान्त में पायी जाती हैं । हिमाचल प्रदेश में तारा की एक मूर्ति चत्रारी में मिली है और ब्रह्मीर में दूसरी तारा की मूर्ति है। आजकल ये मूर्तियाँ क्रमशः शक्ति देवी तथा लक्ष्मी देवी की कही जाती हैं तथापि मोलतः इनमें लामा या पौन प्रभाव स्पष्ट है। पौन शब्द किराती और तमिल भाषा में वही अर्थ रखता है जो संस्कृत में मकर संक्रान्ति और दक्षिण भारत का पर्व पोंगल कदाचित् उसी पौन मूल का है। इस पोंगल शब्द का एक अर्थ पकाना या उबालना है और दूसरा अर्थ प्राचुर्य या समृद्धि, स्वस्ति पौन धर्म की प्रमुख देवी है और उसका तांत्रिक प्रतीक स्वस्तिक चिह्न है। श्री या श्रीयन्त्र पौन धर्म में योनि के गत्यात्मक सिद्धान्त या ‘डायनेमिक प्रिंसिपल’ का प्रतीक है।


वज्रयान


शक्ति अथवा श्री शक्ति (श्री यन्त्र-अथवा योनि) की उपासना प्रजनन कर्मकाण्ड के रूप में प्राचीन सुमेर और मैसोपोटामिया में भी होती थी। सिन्धु सभ्यता में भी देवी उपास्य थी।  कुछ विद्वान ऋग्वेद में भी प्रजनन कर्मकाण्ड की झलक सीता नाम के साथ देखते हैं। बौद्ध काल में तो वज्रयान तन्त्रयान ही का नाम था। बोधिसत्व वह व्यक्ति माना गया है जो केवल अपने निर्वाण या मोक्ष की इच्छा नहीं करता वरन प्राणिमात्र की कल्याण के मार्ग पर लाना चाहता है। बौद्ध लोग बोधिसत्व के गुणों को पारमिता कहते थे. बोधिसत्व मूलतः पुरुष थे किन्तु कालान्तर में उनकी स्त्रियाँ भी पारमिता के आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित हुई। जब स्वयं बोधिसत्व अलभ्य हो गया तो उस तक पहुँचने के लिए उसकी पत्नी की उपासना आवश्यक मानी जाने लगी क्योंकि बोधिसत्व अथवा देवता की (प्रजनन) शक्ति उसकी पत्नी पर निर्भर थी, अतः इस प्रजनन शक्ति का प्रतीक मैथुन महायान धर्म में मान्य बना,  शैव और बौद्ध दोनों में श्री यन्त्र एक जादुई रहस्यवाद का प्रतीक बना है। हीनयान मत की शिक्षा थी कि ध्यान और तप से व्यक्तित्व की भावना नष्ट हो जाने पर मोक्ष या निर्वाण मिलता है जबकि महायान की शिक्षा थी कि बोधिसत्वों अथवा दैवी बुद्धों की सहायता से ही निर्वाण प्राप्त हो सकता है।



तारा


बंगाल के पाल राजाओं के समय में ऐसे अनेक बौद्ध स्थविर प्रतिष्ठित हए जो बुद्ध की भांति चमत्कार दिखाने के लिए जादू-टोने और तन्त्र-मन्त्र का अनुसरण करते थे। ये अपने तन्त्र मन्त्र को वज्रयान कहने लगे. वज्रयानी बौद्ध स्थविरों ने संसार से तारण करने वाली छोटी देवी शक्तियों को प्रतिष्ठित किया. ये शक्तियाँ थीं मातंगी (शूद्रा), पिशाची (भूत प्रेतनी), योगिनी (जोगिनी भिक्षु) तथा डाकिनी (रौद्री)। वे बोधिसत्व या दैवी बुद्ध जो इन चारों स्त्री शक्तियों के पति थे, अनेक हाथ वाले भयंकर रूप के देवता माने जाने लगे। अपने हित की साधना के लिए इन देवी देवताओं की पूजा नहीं की जाती थी. उन्हें फसलाना, बहकाना या वश में करना आवश्यक था. यह प्रक्रिया साधना (माध्यम) कही जाती थी. मातंगी, पिशाची, योगिनी तथा डाकिनी को साध कर ही बोधिसत्व तक पहुँचा जाता था। साधना के लिए, शमशान, शव , चिता की भस्म आदि का भी उपयोग होता था. बयान की प्रमुख मोक्षदायिनी शक्ति तारा, तारण करने वाली, कहलाई जो बुद्ध या बोधिसत्व की पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित हुई। वे ग्रन्थ जिनमें इन स्त्री शक्तियों की साधना का कर्मकाण्ड दिया जाता था, तन्त्र कहलाएं।


किसी मन्त्र का उचित रूप से उच्चारण करके अथवा किसी जादुई आकृति (यन्त्र) को अंकित करके देवता की चमत्कारी शक्ति को उसका उपासक प्राप्त करके अपार सुख प्राप्त कर सकता है। यह विश्वास बौद्धों और हिन्दुओं दोनों में समान रूप से प्रचलित हो गया। बौद्धों का षट अक्षर मन्त्र – ‘ॐ मणि पद्मे हम’ आज भी लामाओं का उपास्य मन्त्र है । तिब्बत में छः अक्षरों का यह मंत्र प्रतिदिन लाखों बार लिखा, दुहराया या मणि चक्रों पर लिखित घुमाया जाता है। ए० एल० बैशाम के अनुसार वज्रयान में ध्यान का मन्त्र ध्यान कर्ता द्वारा देवी तारा के नाथ सहवास का ही चिन्तन है । बौद्ध ध्यानी अपने को मन्त्र जपता हुआ हिप्नोटाइज करके अनुभव करता है कि वह देवी तारा के साथ सहवास करके पुनर्जन्म ले कर बुद्ध की हत्या करके स्वयं उसके आसन पर विराजमान होगा। (‘द वण्डर दैट वॉज इण्डिया” पृष्ठ 283) मगध के शासकों के समय में वज्रयान का पश्चिम हिमालय में प्रचलन हुआ।


दारुण


आदि शंकराचार्य के जागेश्वर में आने से पूर्व इस क्षेत्र में वही भूत-प्रेत जादू टोने का तान्त्रिक भोट भाषा में पौन धर्म, प्रचलित था जिसके अवशेष आज भी तिब्बत और मंगोलिया में यत्र-तत्र पाए जाते हैं। बोधिसत्व और पाशुपत शिव तब एक ही हो गए थे। यह वन जिस पल्लिका या पट्टी में है, वह जिले के सरकारी अभिलेखों में आज कल भी दारुण पट्टी कही जाती है। पट्टी गढ़वाल-कुमाऊँ में माल विभाग के पटवारी (दारोगा) के इलाके का नाम है. दारुण शब्द संस्कृत दारुकावन का स्थानीयकरण है।  जो मूर्ति पौन राजा की कही जाती है तथा जिमे अक्तूबर 8, 1974 को चुरा लिया गया था, वह उसी तांत्रिक या पौन धर्म के उपास्य बौधिसत्व की मूर्ति है जो कभी कुमाऊँ और इससे मिले भोट देश (तिब्बत) का लोक धर्म था। मूर्ति के खो जाने के बाद ही पता चला कि वह लाखों डालर मूल्य की नवीं-दसवीं शताब्दी की एक अत्यन्त दुर्लभ और उत्कृष्ट कलानिधि थी। 20अप्रैल 1976 को मूर्ति के मिलने पर उसके सम्बन्ध में कुछ नए तथ्य प्रकाश में आए।



पौन राजा


समाचार पत्रों में छपे विवरण में कहा गया कि मूर्ति कुमाऊँ के किसी प्राचीन पौन राजा की शिव उपासनारत प्रतिमा है।  ऐसा अनुमान करना स्वाभाविक ही था क्योंकि मन्दिर में कुमाऊँ के राजा दीप चन्द और त्रिमल चन्द की दो और मूर्तियाँ स्थापित हैं । किन्तु न तो कुमाऊँ में कभी पौन नाम का कोई राजा हुआ न यह किसी राजा की मूर्ति है। कार्तिक पूर्णिमा को कुमाऊँ गढ़वाल में शिव की उपासना पुत्र की कामना करने वाली स्त्रियाँ ही करती हैं। कोई भी पुरुष इस प्रकार हाथ में दीया लेकर उपासना नहीं करता । वास्तव में कुछ वर्ष पूर्व तक स्थानीय लोग जागेश्वर से लगभग 60 किलोमीटर पश्चिम में स्थित कटारमल के मंदिर की कांस्य मूर्ति को पौन राजा की मूर्ति कहा करते थे। पिछले दशक में पुराविद डा०के०पी० नौटियाल ने दण्डेश्वर की इस मूर्ति को भी पौन राजा की मूर्ति बताया। इससे पहले न तो जिले के गजेटियरों में इसका उल्लेख था और न कोई स्थानीय व्यक्ति ही यह जानता था कि मूर्ति किस की है। जिन दो राजाओं की मूर्तियाँ जागेश्वर मन्दिर में मिलती हैं, उनमें त्रिमल चन्द ने 1625 से 1638 ई० तक कुमाऊँ में शासन किया। उसका पूर्वज दीप चन्द या दलीप चन्द था। इस प्रकार राजाओं की ये मूर्तियाँ सत्रहवीं शताब्दी की हैं जबकि पौन राजा की वह मूर्ति इनसे लगभग आठ सौ वर्ष पूरानी है। राजाओं की मूर्तियाँ ऐसी भव्य और कलात्मक नहीं है जैसी यह पौन राजा की मूर्ति है।


श्मशान साधक


जागेश्वर कुमाऊँ के चन्द राजाओं का श्मशान था और वहाँ तंत्रवादी कापालिक तथा अघोरपन्थी शव साधना करते थे। जागेश्वर के जगन्नाथ मन्दिर के द्वार पर शिव की जो मूर्ति है, उसके हाथ में एक लकुट के सिरे पर नर कपाल बना हुआ है। जागेश्वर लकुलीश सम्प्रदाय के लोगों का शव मंदिर है । लकुलीश शिव को समस्त सृष्टि का कारण मानते हैं । उनके अनुसार मनुष्य रूपी पशु 23 पाशों (बन्धनों) में जकड़ा है। बन्धन मुक्ति के लिए उसे व्रतों का पालन करना पड़ता है और द्वारों से गुजरना पड़ता है। व्रत हैं – राख पर सोना, देह पर राख मलना, हंसना, गाना, नाचना हडडुकार ध्वनि करना, मंत्र जपना तथा पूजा करना। द्वार हैं – समाधि लगाना, स्पन्दन, मंडन, शृंगरण (कामुकता), अवित्करण (पागलपन), अविदत (ऊटपटांग बकना)। इन अशिष्ट चर्याओं के पीछे समाजिक विद्रोह की भावना छिपी हुई है. पाशुपत सूत्र के व्याख्याकार कोण्डिल्य ने स्पष्ट किया है कि इस आचार का उददेश्य ब्राह्मणों का विरोध करके लोगों को प्रभावित करना था. स्वयं को बुद्ध और भिक्षुणी को तारा मानने की मैथुनी साधना या मुद्रा में सभी सामाजिक परंपराएं त्याग दी जाती थीं।


भोट देश में पौन


भोट भाषा में पौन और बौन दोनों शब्द लगभग समान रूप से लिखे जाते हैं। प और ब ध्वनि और अक्षर दोनों में अन्तर नहीं है. पौन धर्म को समस्त उत्तर एशिया का बौद्ध धर्म का पूर्ववर्ती शमानी धर्म, अंग्रेजी में शर्मनिज्म कहा जाता है। भोट अभिधान (तिब्बती अंग्रेजी डिक्शनरी) में पौन धर्म का जा विवरण दिया गया है, उसका हिन्दी रूपान्तर है – “बौन या पौन तिब्बत का प्राचीन धर्म जो फैटिश निष्ठा (फेटिसिज्म) का भूत प्रेतों का मंत्रों द्वारा आराधन और पूजन हैं, अब अधर्म या विधर्म शब्द का पर्यायवाची बन गया है। अब पौन का तात्पर्य उस शमानी (शेमैनिज्म) धर्म से है जिसका तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार से पहले अनुसरण किया जाता था। तिब्बत के कुछ भागों में आज भी इस धर्म के अनुयायी हैं। यह धर्म कई शताब्दियों तक तिब्बत का मुख्य धर्म रहा”।


जनश्रुतियों के अनुसार इस धर्म को तिब्बत में ले जाने वाला एक भारतीय राजा था जो महाभारत के युद्ध में भाग न लेकर उससे बचने के लिए तिब्बत चला गया था। हूण और कुषाण राजाओं द्वारा प्रचलित परम्पराओं के अनुसार राजा को शिव या बुद्ध का अवतार मान कर भोट देश में पूजा जाता था। सबसे पहले पौन राजा का नाम रूपति कहा जाता है। भोट देश का दूसरा पौन राजा भी वैशाली के लिच्छवि वंश का राजकुमार बताया जाता है। पौन धर्म की यह पहली स्थिति दूसोल बौन (जौल बौन) कहलाती है। कई वर्ष तक लिच्छवि राजकुमार के वंशजों की पौन राजा के रूप में भोट देश में उपासना होती रही। उसके निसंतान मरने पर तीसरा पौन राजा कौशल के राजा प्रसेनजित का पांचवां पुत्र अभिषिक्त हुआ। इस वंश का आठवां उत्तराधिकारी पौन राजा दिग्म त्सांपो था । उसके समय में प्रचलित पौन धर्म को ख्यरबौन कहते हैं। दिग्म त्सांपों की हत्या कर दी गई थी और प्रजा को यह ज्ञात नहीं था कि हत्या के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए पौन राजा की अन्त्येष्टि कैसे की जाय. अतः अन्त्येष्टि के लिए तीन पुरोहित बाहर से बुलाये गये।


एक पुरोहित कश्मीर से आया, दूसरा दुश प्रान्त से और तीसरा शनशुन प्रान्त से, ये तीन पौन तीर्थक कहे जाते है। जनश्रुतियों के अनुसार इनमें से एक आकाश में उड़ सकता था, दूसरा भविष्य वक्ता था और तीसरा अन्त्येष्टि संस्कार में निपुण था. इन तीनों ने राजा की अन्त्येष्टि करके बौन धर्म को जो नया रूप दिया वह ग्यूरबौन कहलाता है। पौन धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं। श्रुति, स्मृति और पुराणा की ही भांति उसके धर्म शास्त्रों का भी प्रचुर साहित्य तिब्बत में उपलब्ध है। तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार ग्यारहवीं सदी ईस्वी में दीपंकर श्रीज्ञान ने किया। उस समय तक वहाँ पौन धर्म का ही प्रचलन था ।  जागेश्वर में भी आठवी-नवीं शताब्दी ईस्वी में बौद्ध धर्म का तन्त्रवादी पौन रूप ही राज धर्म था। इसका प्रमाण है जागेश्वर को वर्तमान नव दुर्गा कहे गए मन्दिर की छत,  यह छत बेलनाकार है। इसी प्रकार की छतें गुजरात और दक्षिण के चैत्यों में भी पाई जाती हैं. छत के दोनों सिरों पर पौन धर्म की पशु आकृतियाँ बनी हुई हैं । 


गिउसेप तुच्ची की खोज


इतालवी प्राच्य विद्या विशारद गिउसेप तुच्ची ने अपनी पुस्तक “नेपाल” में तिब्बत के उक्त बौन या पौन धर्म के विषय में लिखा है- “गांव के एक छोटे से मन्दिर के लामा ने मुझे विश्वास दिलाया कि उन गांवों में बौन धर्म अब भी जीवित है। यह धर्म तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार से पहले यहाँ के निवासियों का प्रमुख धर्म था किन्तु अब केवल चीन के सुदूर अभ्यन्तर के अतिरिक्त अन्य स्थानों से लोप हो गया है, लामा के अनुसार चर्का और तरप पूर्णतः बौनपो गाँव हैं । वहां वह धर्म अब भी जीवित है । उसी धर्म के देवता पौन के मन्दिर और मठ वहाँ पर हैं। ऐसी जानकारी का मूल्य नित्य ही सापेक्ष है और अनेक बार मुझे इस की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के पर्याप्त कारण नहीं मिले किन्तु इस समय लामा ने मुझे एक बौनपो अभिलेख दिखलाया, बड़ी लम्बी सौदेबाजी के बाद उसने इस प्राचीन अभिलेख को मेरे हाथ बेच दिया। इससे मुझे उक्त कथन का प्रमाण मिला.” चर्का और तरप गाँव नपाल-तिब्बत सीमा पर मुस्तांग दर्रे के निकट स्थित हैं।


गिउसेप तुच्ची की उपर्युक्त पुस्तक में एक मन्दिर से प्राप्त पौन धर्म के देवताओं के चित्र दिये गये हैं । इस चित्रावली में पच्चीस चित्र देवी-देवताओं के हैं तथा लगभग इतने ही विचित्र आकृति के अर्द्धपशु, मानव और अर्द्धपक्षियों के भी हैं । पुस्तक में बौन मन्दिर की तीन आदम कद खड़ी मूर्तियों के चित्र भी दिए गए हैं जिनमें से अन्तिम मूर्ति ठीक उसी प्रकार की है जैसी कि जागेश्वर में प्राप्त उक्त पौन की मूर्ति है. नेपाल के इसी सीमान्त में पौन धर्म के मन्त्रों से अभिलिखित पत्थर भी मिलते हैं। ये मन्त्र बौद्ध धर्म के मन्त्रों के ही समान हैं किन्तु शब्दों में अन्तर रहता है। पौन धर्म का स्वस्तिक भारतीय स्वस्तिक से उल्टा होता है।


कुमाऊँ में तन्त्रवाद


वज्रयान का प्रचार कुमाऊँ में मगध के पाल और सेन राजाओं द्वारा हुआ था। बर्मा में भी पीन धर्म की कुछ बातों को बौद्ध धर्म को आत्मसात करना पड़ा था। बर्मी लोग भी पौन धर्मावलम्बी भूत-प्रेत के उपासक थे। ग्यारहवीं सदी तक भी वे छत्तीस भूतों की पूजा करते थे । इनमें गौतम बुद्ध को सैंतीसवें भूत के रूप में सम्मिलित किया गया.श।मंगोलिया और चीन से सम्पर्क होने के कारण पौन धर्म में निषेधवाद की भावना प्रबल रही । मृत्यु के बाद सब कुछ शून्य है, यही ताओ धर्म का सिद्धान्त तन्त्रवादी शैवों, बौद्धों और बच्चयानियों का परम आदर्श है । जागेश्वर के महामृत्युंजय मन्दिर के सम्मुख तन्त्रवादी अपने शरीर का त्याग करते थे. कुमाऊँ के इतिहास में चन्द काल में ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं जब राज गुरु इसी प्रकार शरीर त्याग करते थे।


कुमाऊँ के राजा लक्ष्मी चन्द द्वारा गढ़वाल के अभियान में पराजित हो जाने पर अपने तांत्रिक गुरु को नादिया (बंगाल) भेज कर वहां से कोई नया तन्त्र सीख कर आने का उल्लेख है. जन साधारण तन्त्रवाद के जिस रूप को अपना चुके थे वह बौद्ध, शैव और पौन लामावाद का अद्भुत सम्मिश्रण था। उसमें वज्रयान, तन्त्रवाद और हठयोग का भी पुट था। उपासक को यह पता ही नहीं रहता था कि वह किस धर्म या किस मत या देवता का उपासक है। ‘सिद्धि श्री’ या स्वस्ति श्री’ ये दो शब्द तो लिखे जाने वाले पत्र के आरंभ के अनिवार्य शब्द थे। ये दोनों तन्त्रवाद में उपास्य देवियों के नाम हैं। देवी की उपासना का कुमाऊँ में प्रचलित कर्मकाण्ड भी शामानी या लामा प्रभाव से मुक्त नहीं था। नन्दा देवी की जो केले के खम्भों और पत्तों से विसर्जन के लिए प्रतिमा बनती है वह डिकर या डिकरा कहलाती है यह शब्द भी शक्ति सम्प्रदाय का है। अल्मोड़ा नगर का प्राचीन मन्दिरों की परम्परा में नवीनतम मन्दिर त्रिपुरा सुन्दरी भी शाक्त धर्म की इसी तन्त्रवादी परंपरा का है।



You Might Also Like...
× उत्तरी हरिद्धार
मध्य हरिद्धार
ज्वालापुर
कनखल
बी एच ई एल
बहादराबाद
शिवालिक नगर
उत्तराखंड न्यूज़
हरिद्धार स्पेशल
देहरादून
ऋषिकेश
कोटद्वार
टिहरी
रुड़की
मसूरी