प्रेम ध्वजा : एम.एस.रावत
गबर सिंह भण्डारी
श्रीनगर गढ़वाल। श्रीकृष्ण के प्रति ब्रजगोपियों के आलौकिक प्रेम को सर्वोत्कृष्ट माना गया है,जगपति जसोदा नंदअरु ग्वाल-बाल सबधन्य पै या जग प्रेम की गोपी गई अनन्य,(रसखान) प्रेमा भक्ति परम आचार्य देवऋषि नारद ने यथा ब्रज गोपीकानाम,सूत्रों के अंतर्गत गोपियों के अनूठे प्रेम को ही आदर्श माना है, ब्रजगोपियों का श्रीकृष्ण प्रेमा लौकिक जगत के छद्म प्रेम से सर्वथा भिन्न था,प्रियतम के प्रति उनका अनन्य अनुराग एवम् निष्काम प्रेम स्वसुख वांछरहित व त्तसुखसुखित्वम की पवित्र भावना से ओत प्रोत था,लौकिक जगत में रहते हुऐ भी उनके सारे कर्म श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित थे,नैतिक जीवन में उनका गोओ को दोहना,दाहिमथना,धनकुटना,घर में बुहारी देना,वर्तन धोना,पुष्पों की माला गूथना बच्चों को झूलाझुला कर शांत कर शांत करना,पति एवं परिवारजन की सेवा सुश्रषा आदि सभी काम श्रीकृष्ण प्रेम में अनु प्राणित थे,दिव्य रास को आवाहन पर मध्य रात्रि में वंशी की धुनि कानो मे पड़ते ही उनका अपने विविध कर्मों (भोजन करना,शिशु को स्तनपान करना,घर लिपना नेत्रों में अंजन लगाना आदि)को तत्काल छोड़ अतुर्ताबस रास स्थल की ओर दौड़ता और परिवारजनों के प्रबल विरोध का सामना कर पाने में असमर्थ गोपियों का स्वत: समाधिस्त हो प्राण त्यागते हुए, महारास में समलित होना उनके दिव्य प्रेम धोधक है।
एक बार देवऋषि नारद के द्वारिका पहुंचने पर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने लीलावश उनके समक्ष मस्ती में असहय पीड़ा होने लगी तथा किसी भक्तद्वारा प्रदत्त चरण-धूलि मस्तक पर लगने से पीड़ा का अन्त होते मंतव्य प्रकट किया,स्वयं ऋषिदेव नारद जी एवं समस्त पटरानियों ने नरकगामी होने की आकांक्षावश पद-रज देना स्वीकार न किया,तब ऋषिनारद जी द्वारा गोपियों से वतुस्त्थिति बताए जाने पर उन्हें स्वयं के अनिष्ट की तनिक चिंता न करेते हुए,अप्रमित प्रेमवश तत्काल चरण-धुलिका अंबार लगा दिया,श्रीकृष्ण के मथुरागमन पर विरहाकुल गोपियों की करुण वेदना दृष्ठव्य है,निषिदिन बरसत में हमारे;सदा रहत पावन ऋतु इन पर ,जब से श्याम सिधारे, महा ज्ञानी उद्धव जी का शुष्क व नीरस तत्वज्ञान गोपियों के समक्ष व्यर्थ सिद्ध हुआ,उधो मन ही दस बीस एक हुतो सो गये श्याम संग,को आराधे ईश। प्रमुख अष्ठछापकवि परमानंददास द्वारा गोपी प्रेम की धुन,कह तक उनके अलौकिक श्रीकृष्ण प्रेम को सर्वोपरि ठहराया गया है,भक्त कवि नंददास के शब्दों में श्रीकृष्ण की गोपियों के प्रति कृतज्ञता उनके अद्वितीय प्रेम की प्रकाष्ठा थी,पुष्टि करती है,कोटिकल्प लगी तुम,प्रतिउपकार करोंजो,ही मन हरनी नाही तावोतों (रास पंचाध्याय)।