वृंदावन के एक संत : एम.एस.रावत
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गबर सिंह भण्डारी
श्रीनगर गढ़वाल। बात बहुत पुरानी नही है,-वृंदावन में गोस्वामी बिंदु महाराज नामके एक भक्त रहते थे,वे काव्य रचना में प्रवीण थे। विहारी महाराज उनके प्राणाधार थे,अत:प्रतिदिन एक नवीन रचना विहारी के दर्शन करने सुनाने के लिए रचाते और संयनकाल में जब बिहारी के दर्शन के लिए जाते तो उन्हें भेंट कर आते,उनके मधुर कण्ठ की ध्वनि दर्शनार्थियों के हृदय को विमुग्ध कर देते,बिहारी से उनका सतत्त साक्षात्कार था।
एक बार विन्दु महाराज ज्वर ग्रस्त हो गए,कई दिनों तक कंपकंपी जैसा ज्वर आता था,उनके शिष्यगण सेवा में लगे थे,वृंदावन में उस समय श्रवणलाल वैध आयुर्वैद्ध के प्रसिद्ध ज्ञाता थे,उनकी औषधियों से बिंदु महाराज का ज्वर तीन-चार दिनों बाद कुछ हल्का हुआ,विंदु के शिष्यों ने विहारी की श्रृंगार आरती से लौटकर चरणामृत और तुलसी पत्र अपने गुरुदेव विन्दु को दिया,विन्दु कहने लगे किशोरी लाल,आज सांझ कुंश विहारी के दर्शन करवे चलिंगे। पर महाराज आपको तो कमजोरी बहुत ज्यादा है,कैसे चल पाओगे किशोरी लाल ने अपनी शंका प्रकट की,अरे कछु नायें भयो ठाकुर कुं देखे कई दिन है गये-या लिए आज तो जरूर ही जायेंगे,विन्दु ने अपना निर्णय सुनाया। ठीक है,जो आज्ञा कह कर किशोरीलाल अन्य कार्यों में व्यस्त हो गए,परन्तु बिन्दु अचानक बेचैन हो उठे। आज तक कभी ऐसा नही हुआ,जब बिन्दू,बिहारी के दर्शन गए हो और उन्हे कोई नई स्वरचित काव्य रचना न अर्पित की हो,आज उनके पास कोई नहीं थी,उन्होंने आज कागज कलम लेकर लिखने का प्रयास किया,शारीरिक कमजोरी के कारण लिख नही पाए,धीरे-धीरे दोपहरी बीत गई। सूर्य नारायण पश्चिम की ओर चल दिया,लाल किरने वृंदावन के वृक्षोंके शिरोभाग पर मुस्कराने लगी,तभी विन्दु ने पुनः किशोरी लाल को आवाज दी किशोरी लाल,हां गुरुदेव एक पुराणों चदरा तो निकाल दे संदूकबा सूं चादर निकार कर गुरु के सिरहाने रख दी।
चादर क्या थी,उसमे सैकड़ों तो पैबंद लगे थे,रज में लगरही है,विन्दुजी ने चादर को सहज कर अपने पास रख लिया।
जब सूर्यास्त हो जाने पर बिन्दु विहारि महाराज के दर्शन करने के लिए नकले तो उन्होंने वही चादर ओढ़ली तब वृंदावन में आजकल की भांति जगमगाती बिजली नही थी,दुकानदार अपनी दुकानों पीआर जो व्यवस्था करते थे बस वही बाजार को भी प्रकाशित करती थी,शिष्य चुपचाप गुरु के पीछे चल रहे थे,विहारी महाराज के मंदिर में पहुंच कर विन्दु ने किशोरी लाल का सहारा लिया जगमोहनकी सीढ़ियांचढ़ी और बिहारी महाराज के दाहिनी ओर वाले कटहरे के सहारे द्वार से लगकर दर्शन करने लगे,वे जितनी देर वहां खड़े रहे उतनी देर उनकी दोनो आंखों से अश्रुधार प्रभावित होती रही,आज कोई रचना तो थी नही जिसे बिहारीजी को सुनते,अत: चुपचाप दर्शन करते रहे,काफी समय के बाद उन्होंने वहां से चलने की इच्छा जताकर कटहरे पर सिर टिकाकर दंडवत किया,एक बार फिर अपने प्राण प्यारे को जी भर के देखा और जैसे ही कटहरे से उतरने लगे कि नुपुरुओं की ध्वनि ने उनके पैर रक दिए,जो कुछ उन्होंने देखा अद्भुत था,निज महल के सिंहासन से उतर कर बिहारी महाराज उनके सामने खड़े हो हुए,क्यों आज मोहना ही सुना ओगे अपनी कविता।
अक्षर-अक्षर जैसे राग में पगा हुआ खनकती सी मधुर-मधुरुं के कर्ण कुहरों से टकराई,उन्होंने देखा ठाकुर जी ने उनकी चादर का छोर अपने हाथ में ले रखा है,सुनाओ ना एक बार फिर आग्रह से विहारी ने कहा,यह प्रश्न था या साक्षात इसका निर्णय कोन करता,बिन्दु तो जैसे आत्म-सुध ही को बैठे थे,शरीर की कमजोरी न जाने कहां विलुप्त हो गई,वे पुन: कटहरे का सहारा लेकर खड़े हो गए,आंखों से आंसुओं की धार,गदगद हृदय,पुलकित देह का सहारा जैसे आनंद का महाश्रोत प्रकट हुआ हो,बिन्दु की कंठ की ध्वनि ने अचानक सब का ध्यान अपनी ओर खींचा,लोग कभी उनकी तरफ देखते कभी उनकी चादर की ओर,किंतु बिंदु थे की विहारी महाराज की ओर अपलक दृष्टि से देख रहे थे,भीर मंदिर मे उनके भजन की गूंज के शिवाय और कोई शब्द सुनाई नही दे रहा था-विन्दु देर तक गाते रहे।
"कृपा की न होती तो आदत तुम्हारी l
तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी ll
गरीबों के दिल में जगा तुम न पाते l तो किस दिल में होती हिफाजत तुम्हारी ll
--एम.एस.रावत