आत्मिक प्रगति के उपाय : एम.एस.रावत
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गबर सिंह भण्डारी
श्रीनगर गढ़वाल। जीवन जीने के लिये अन्न,वत्र,निवाश,की आवश्यकता पड़ती है,इसमें एक की भी उपेक्षा नही की जा सकती आत्मिक प्रगति के लिये उपासना, साधना और इन तीनों के समान समन्वय की आवश्यकता पडती है,उपासना का अर्थ है, पास बैठना यह वैसे ही है,जैसे कि रेलगाड़ी के मुसाफिर एक दूसरे पर चढ़ बैठते हैं जैसे दो घनिष्ठ मित्रो के दो शरीर,प्राण,एक हो कर रहना पड़ता है,सही समीपता ऐसी ही गंभीर अर्थों में ली जाती है,समझाजाना चाहिये,इसमें किसको किस्से समर्पण करना होगा या चाहिये।
आत्मॉकर्ष के लिए
सर्व प्रथम उपासना का तत्व दर्शन और स्वरूप समझना होगा,भगवान हमारी मर्जी पर नहीं चलते,हमको ही भगवान भक्त बनना होगा,उनके संकेतो को समझना होगा,उसी मर्जी पर चलने से जो लाभ होगा, ओं ऐसा होगा जैसे ईधन की शक्ति पर ज़ब यह शक्ति अंगों के साथ जुड़ जाती है, तो इसमें सारे गुण अग्नि के जैसे आजाते हैं, अगर ईधन नहीं बनती ईधन को आग बनना पड़ता है,जो भगवान के समीप बैठाना चाहे वह उसीके निर्देश के अनुसार स्वीकार करे, उसीका अनुयाई सहयोगी बने उपसना क्रिया,प्रधान नहीं है,श्रद्धाप्रधान होनी चाहिये, ईश्वर की सत्ता के कारण शरीर में श्रद्धा, शुक्ष्मशरीर में प्रज्ञा और स्थूल शरीर में निष्ठा बनकर प्रगट होने लगे, समझदारी जिम्मेदारी बहादुरी के रुपमें प्रज्ञा का समन्वय आत्मा -चेतना की गहराई में होना चाहिये, यदि भाव चेतना में प्रज्ञा का अवतरण हुआ है तो उपासना फलवती हो चली समझना चाहिये, दूसरा पक्ष है, जीवन साधना का, जीवन साधना प्रकारान्तर से सयंम साधना है, समयके अंतर्गत इन्दर्य, संयम, समय सयम और अर्थ सयम आदि प्रमुख है, इन्द्रिय सयम में जहां अप्रतीर अप्रत विहार को महत्व दिया जाता है, वहीं सही प्रबंधन अथवा व्यवस्थित दिन चर्य समय संयम से बहुत आती है,विचारों का कर्म से और कर्म व्यक्तित्व से सम्बन्ध है,
अतः विचार संयम का अनिवार्य रूप से पालन किया जाना चाहिये,ज़बकि अर्थ का सही नियोजन अर्थात शरीर तथा परिवार के लिये इतना खर्च करे, जिससे कम में काम चले दैवी उपलब्धि प्राप्त करने के लिये शुद्ध चरित्र और पात्रता अभिवर्धन की आवश्यकता है, इसी का नाम जीवन साधना है,इसके लिए अपने गुण कर्म व स्वiत्विकता का समावेश करने हेतु आत्म-निरीक्षण आत्म-सुधार,आत्म-निर्माण और आत्म विश्वास की दिशा में बढ़ना है,तीसरा पक्ष है,आराधना,आराधना का अर्थ -लोक मंगल,के लिये निरत रहना, अपना समय,समयश्रम,धन एवं प्रतिभा का अंश लोक मंगल के लिये निमित्त नियोजन करना लोक-मंगल का परमार्थ करना जिसका प्रतिफल हमें हाथों हाथ मिलता है, आत्मसंतोष,लोक सम्मान,देवगुण ग्रह के रुप में तीन गुणा सत्य परिणाम प्रदान करने वाला यह ऐसा व्यवसाय है, इसमें जिस जिस ने हाथ डाला कृत कृत्य हो कर रहा है, मनुष्य के चिंतन में उपासना चरित्र में साधना और व्यवहार में आराधना का समावेश करने में यदि पूरी सतर्कता और तत्परता बरती जाय तो अध्यात्म अवलम्भ का प्रति फल व्यक्ति के व्यक्तित्व को महा मानव, देवमानव,ऋषितुल्य बनने के रुप में अवश्य प्राप्त होगा।