श्री राम : सोई जानइ जेहि देहु जनाई
सचिन शर्मा
श्री रामनवमी पर विशेष
रुड़की। रघुकुल भूषण भगवान श्री राम के अवतरण दिवस श्री राम नवमी पर डॉ. सम्राट् सुधा ने कहा कि श्री राम का अवतरण ,किसी भी पुण्य-अवतार की भांति सुद्देश्य हेतु था। उनका पृथ्वी पर अवतरण रावण-वध के मुख्य कार्य हेतु व समानांतर रूप से आदर्शों की स्थापना ही था।
प्रभु श्रीराम वस्तुतः अवतार हैं ! अवतार जन्मते नहीं ; 'प्रकट' होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने 'श्रीरामचरितमानस' में प्रभु के ' प्रकट' होने का बड़ा सुंदर चित्रण किया है -
" भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।" श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड, पंचदश: सर्ग में देवता विनीत भाव से श्री विष्णु से निवेदन करते हैं- "आप अपने चार स्वरूप बनाकर राजा ( दशरथ) की उन तीनों रानियों के गर्भ से पुत्र रूप में अवतार ग्रहण कीजिए। इस प्रकार मनुष्य रूप में प्रकट होकर आप संसार के लिए प्रबल कण्टकरूप रावण को, जो देवताओं के लिए अवध्य है, समरभूमि में मार डालिए !" यह प्रभु श्रीराम के अवतरण के कारण को स्पष्ट करता है। ईश्वरीय कथाएं सामान्य जन के मस्तिष्क से परे हैं,वस्तुतः वे मस्तिष्क हेतु हैं भी नहीं ; एक भाव है, जो समझना और आत्मसात करना है।
श्री तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड में शिवजी के माध्यम से माँ पार्वती को कहलवाया है-
"राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी ।
मत हमार अस सुनहि सयानी ।।
तदपि संत मुनि बेद पुराना ।
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ।।"
श्री तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में ही लिखा है-
" बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ।।"
प्रभु की लीला समझना सहज नहीं । माता को जब प्रभु के विविध कर्म- चरित्रों ( भाव - प्रकट होने के उद्देश्यों) का बोध हुआ , तो उनका वात्सल्य जाग्रत हुआ-
" माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ।।"
(रामचरितमानस, बालकाण्ड )
सभी लौकिक संबंधों में भी एक भाव अपरिहार्य है- वात्सल्य ! बड़प्पन 'बड़ा होने' का पर्याय नहीं , वात्सल्य जब तक जीवित है , संबंधों को श्वास मिलती है ! छल का आविर्भाव बाद में होता है , पहले वत्सल मृत होता है ! वत्सल ही प्रेम का आधार है ! निराकार ब्रह्म की लौकिक क्रीड़ाओं का एक हेतु यह प्रेम भी है । ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान किसी को नहीं, परन्तु अनुभूति निज भावना के अनुसार सभी को है। यह निर्धारित है कि अति अत्याचार के समय पीड़ित जन की पुकार पर वे अवतरित अवश्य होते हैं। ईश्वर का मूल स्वरूप तो मृदुल ही है , वे स्वयं भावना के वशीभूत हैं, परन्तु कपट नहीं, सुभाव के पक्षधर व सहयोगी हैं। प्रभु श्रीराम के बाल स्वरूप पर श्री तुलसीदास ने कितना सुंदर लिखा है-
" ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद ।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद ।"
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण एवं श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदास विरचित श्रीरामचरितमानस, दोनों के बालकाण्ड में प्रभु श्रीराम के बाल-स्वरूप का अत्यंत मोहक वर्णन है,परन्तु द्रष्टव्य यह है कि दोनों में ही उनके जन्म अथवा अवतरण के उद्देश्य को सुस्पष्ट बताया गया है।
संत काव्य परम्परा में 'राम' निर्गुण भक्ति धारा में भी उपस्थित हैं ; नाम रूप में प्रकट , तो अनुभूति में परोक्ष , परन्तु वे हैं ! यह श्री तुलसीदास की मेधा रही कि उन्होंने निर्गुण- सगुण को प्रकारान्तर से एक ही सिद्ध किया-
" सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।।
अगुन रूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई ।।"
( श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड)
अवतार के नाते श्रीराम के जो- जो लौकिक ध्येय हैं , वे उनके प्रत्यक्ष जीवन- क्रम के संग दृष्टिगोचर होते हैं । उनकी लीला प्रत्यक्ष है, परन्तु उसे समझ पाना सरल नहीं ! स्पष्टतः श्रीराम लौकिक रूप में जन- मन- प्रतिष्ठित होते हुए भी 'अनुभूति' या ज्ञान की दृष्टि से सर्वदा सबके सन्निकट नहीं ! कौन जान पाता है उन्हें ? गोस्वामी तुलसीदास जी 'अयोध्याकाण्ड' में कह गये हैं-
" सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हह होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन ।।"
कैसे पा सकता है कोई श्रीराम का नेह -
" रामहि केवल प्रेमु पिआरा ।
जानि लेउ जो जाननिहारा ।।"
( श्रीरामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड)
श्रीराम की लीला जगत् में सु- जीवन जीने की , विराट आदर्शों की लीला है ; पग- पग पर संदेश हैं ,समग्रतः संदेश है - असत्य पर सत्य की विजय !
डॉ. सम्राट सुधा ने श्रीराम के अवतरण-दिवस पर सभी को शुचितामय व सुखमय जीवन की शुभकामनाएं दी हैं।