गिद्धों में गौरैया - डॉ. सम्राट सुधा
सचिन शर्मा
हरिद्वार। विश्व गौरैया दिवस पर प्रख्यात शिक्षाविद डॉक्टर सम्राट सुधा ने अपने बचपन को याद करते हुए बताया कि घुटनों के बल चलने-दौड़ने की कोई बाल स्मृति मेरे मस्तिष्क में है , तो वह गौरैयों के पीछे जाने की है। वे आँगन में 'छा' जाती थीं , निःशंक एवं उन्मुक्त ! उन दिनों 'गिद्ध' आदमी में रूपांतरित ना हुआ था , सम्भवतः इसलिए भी !
आयु बढ़ती गयी , गौरैया घटती गई । पंद्रह से अट्ठाइस वर्ष तक आते-आते गौरैया कौतूहल का विषय हो गयी, कभी वह दिन- प्रतिदिन की संगी थी।
हिमाचल प्रदेश गया , आर्मी स्कूल में पढ़ाने, तो जिस घर में रहता था , वह हिमाचल की भूमि पर था , लेकिन उसके ठीक पीछे की धरा पंजाब प्रदेश की थी। शाम को मकान मालिक के बच्चों के साथ छत पर जाना होता या छुट्टी के दिन , वहाँ बहुत सारी गौरैया दिखतीं , दाने चुगतीं ; पात्र में रखा जल पीतीं ; नहातीं ,अन्य चिड़ियों के संग । एक दिन एक बच्ची बोली -" सर ,ए स्पेरो पंजाब ते आयी हँगी, ओ दुज्जी साड्डी हिमाचल दि है !" मैं समझ गया अब गौरैयों का बंटवारा हो गया....वह हमसे अगली पीढ़ी थी, जिसने कुछ पुरानी को भी 'प्रैक्टिकल' होना सिखा दिया !
गिद्ध श्मशान छोड़ बस्तियों में आ गये ; श्मशान में मृत लाशें थीं , बस्तियों में जीवित शव , प्रतिदिन मरते ,लालसा के 'वेंटिलेटर' से चलित ; ना मृत , ना जीवित ! सो, गौरैया अब बस्तियों से लुप्त हो गयी। हम जहाँ-जहाँ चूके , हमने 'डे' बना लिए-मदर डे ; फादर डे ; स्पैरो डे... !
आज स्पैरो डे है ; सॉरी , वर्ल्ड स्पैरो डे , ये पंछी हमारे जीवन का अविभाज्य अंग हैं , तो क्यों ये दीवारों पर टंगी पेंटिग्स में दिखें बस !
आयें , अन्न-जल का इनका भी हिस्सा है , इनका कोई ऋण है, जो शायद हम यूँ उतार पायें थोड़ा ; पूरा तो कभी नहीं ! एक विचार यह आता है कि कहीं ऐसा तो नहीं ,हमने ही इनके अधिकार को दबा लिया हो।