कविता मात्र इस जन्म का सर्जन नहीं : डॉ. सम्राट् सुधा
आज विश्व कविता दिवस पर विशेष :
रूड़की। कविता इस जन्म का सर्जन नहीं , वह जाने कितने जन्मों की थाती है ! विगत जन्मों की समग्र रचनात्मक निधि लेखन या कला विशेष को सन्नद्ध करती है। यह प्रत्येक मनुष्य , जो अंततः किसी ना किसी नैसर्गिक प्रतिभा से सम्पन्न होता ही है ,के संदर्भ में सिद्ध तथ्य है ! ये विचार हिन्दी के प्रख्यात प्रोफेसर तथा साहित्यकार डॉ. सम्राट् सुधा ने आज विश्व हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में बातचीत में व्यक्त किये ।
डॉ. सम्राट् सुधा ने कहा कि कविता लिखी जाती है ; सृजित की जाती है या उसका सर्जन स्वयं ; अनायास हो जाता है , ये वे बिंदू हैं , जो एक लंबे समय तक मेरी सोच का विषय रहे। प्रत्येक कवि की रचनाधर्मिता की वैयक्तिक पृष्ठभूमि होती है , इसमें मैं कभी दो मत नहीं रहा। शनैः-शनैः मुझे यह अनुभूति भी हुई कि वह पृष्ठभूमि मात्र इस जन्म तक ही सीमित नहीं ; वह विगत अनेक जन्मों का धरातल है , जो जन्म-जन्म निज परिधि बनाकर अनेक बार किसी भी रचनाकार की परीक्षाएं लेता है । आत्मिक पुकार हमें उचित-अनुचित सब इंगित करती है । सो , कोई भी रचनाकार यदि परीक्षा-परिधियों से स्वयं को मुक्त कर उड़ान भरता है , तो उसकी विगत जन्मों की समग्र रचनात्मक निधि उसके लेखन या कला विशेष को सन्नद्ध करती है। यह प्रत्येक मनुष्य , जो अंततः किसी ना किसी नैसर्गिक प्रतिभा से सम्पन्न होता ही है ,के संदर्भ में सिद्ध तथ्य है !
उन्होंने कहा कि जहाँ तक मेरी रचनाधर्मिता की बात है , मैं कभी कविता , कहानी , लेख आदि लिखता नहीं ! सच तो यह है कि मैं कभी अपने लेखन के विषय को लेकर बहुत विचारता भी नहीं। शोधपत्र , जिन्हें विशुद्ध मानसिक उत्पाद कहा जाता है , मैंने सर्जन की भांति तैयार किये हैं । कविता तक सीमित रहूँ, तो आकाश एक पंक्ति देता है ; उसी पंक्ति का विस्तार मेरी कविता होती है । अनन्त आकाश का देय देखने में एकाकी है, परन्तु उसमें अनन्त ही अंतर्निहित होता है ,सो आज तक एक भी कविता ऐसी नहीं , जिसे लिखने में दूसरी बैठक करनी पड़ी हो ; जो लिखा एक साथ ; एक ही बार में पूर्ण ,कविता कह सकूँ ऐसा ! वस्तुतः यह लिखना नहीं ; सर्जन हुआ ! इसी से मेरी यह धारणा पुष्ट हुई कि कविता इस जन्म का सर्जन नहीं , वह जाने कितने जन्मों की थाती है !
कविता को प्रायः कवि की नितांत वैयक्तिक सम्पदा ही नहीं , उसकी आपबीती का प्रतिफल भी मान लिया जाता है। एक कवि के रूप में मैं ( आप भी यदि मुझे कवि माने तो ) इस आपबीती की मान्यता का समर्थक नहीं हूँ। पाठक को 'अनुभव' और ' अनुभूति ' का अंतर समझना होगा। हम यदि किसी भी सर्जन को सृजक के वैयक्तिक अनुभव का प्रतिफल माने , तो यह उसकी प्रतिभा को बहुत सीमित कर देना कहलायेगा। स्थूल रूप से इसे यूँ समझा जा सकता है कि एक व्यक्ति घायल होकर सड़क पर गिरा है , अनेक उसे देखते हैं , कुछ आगे बढ़ जाते हैं ; कुछ देखते रहते हैं ; कुछ उसके उपचार का प्रबन्ध करते हैं और इन उपचार का प्रबन्ध करने वालों में से ही कुछ उससे उपचार व उपचारोपरांत भी सम्पर्क रखते हैं। सृजक उपचार कराने वालों में से वह कुछ है , जो बाद में भी घायल के संग है । कभी दैहिक रूप से ,तो कभी या कहें कि प्रायः अपनी रचना के संग। अब यह घायल पर है कि वह स्वस्थ होने पर उसकी रचना को संजोये या फेंके , लेकिन सृजक अपना दायित्व पूर्ण कर चुका होता है , क्योंकि सच यह है कि वह ऐसा किये बिना रह नहीं सकता ; यह उसकी जीवन- कथा में लिखित है ! स्पष्ट है कि एक सृजक मात्र अपने अनुभवों तक ही सीमित नहीं होता , वरन् अन्य की अनुभूतियां भी वह अनुभव की भांति जीता है या जी चुका होता है !
कविता मेरी दृष्टि में अभिव्यक्ति की सबसे सूक्ष्म या कहूँ , एकमात्र सूक्ष्म विधा है। गद्यात्मक संवाद विस्तार है , जिसमें अनेक बार बिखराव हो जाता है, परन्तु कविता किसी को मुट्ठीभर सुगन्ध सौंप देना है। द्रष्टव्य बात यह है कि सुगन्ध कवि की मुष्टि- सम्पदा नहीं , सुमन उसके हाथों में नहीं हैं ,वह स्वयं सुगन्ध को गगन से ग्रहण करता है । यह ग्रहण करना जितना निर्मल होगा , उतनी ही कवि की अभिव्यक्ति भी स्वच्छ होगी और इसी क्रम में सुगन्धित भी ! कवि की मानसिक संलिप्तता उसकी द्वारा ग्रहण पवन की सुगन्ध के प्रकार को निश्चित करती है। संलिप्तता को योग कहें , तो और अच्छा ! यह योग ही सर्जन को ग्रहणीय सुगन्ध बनाता है ,क्योंकि सुगन्ध भी अनेक के लिए कष्टमयी हो सकती है।
अपने योग तथा अपनी रचनाधर्मिता के संदर्भ में डॉ.सम्राट् सुधा ने कहा कि अपने योग की बात करूँ , तो यह शिवबाबा से संपृक्त होने का प्रयास है मेरा ! मेरे लिए शिवबाबा कल्याण नहीं , सद्मार्ग के निदेशक भी हैं और कल्याण भी मात्र मुझ तक ही सीमित न हो ,सभी के प्रति प्रार्थनीय है ! प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय से जुड़कर मेरी रचनाधर्मिता को अनुपम सुगन्ध मिली है और उसमें शांति-तत्व समावेशित हुआ है।
किसी भी मानसिक गाँठ के संग कोई सृजक नहीं हो सकता । मैं बना दिया गया कवि नहीं हूँ । मैं कवि हूँ ही , इसे लेकर भी मेरा कोई हठ नहीं है। आकाश विचार सम्प्रेषित करता है , मेरी ओर ; मेरे लिए ! यह भी अकथित रूप से निर्धारित हुआ आता है कि वह विचार विशेष अब पद्य में ढलकर विस्तार लेगा या गद्य की किसी विधा में । आकाश-प्रेषित उस विचार तथा रचना कर मध्य मैं हूँ । मेरा कार्य बस इतना है कि आकाश से आते उन विचारों को उनके अधिकाधिक प्राकृत रूप में लिपिबद्ध कर दूँ बस , जिसके लिए शिव-स्मरण मेरी शक्ति है।
डॉ. सम्राट् सुधा ने कहा कि कविता वाङ्मय की एक पावन सरिता है। इसका सर्जन और पठन संबद्ध पुण्य वह ही पा सकता है, जिसकी आत्मा निर्मल हो।