आत्मकेंद्रित लेखन में डूबे हैं हिन्दी के अधिकांश साहित्यकार - डॉ. सम्राट् सुधा
सचिन शर्मा
सौरभ हत्याकांड सहित अन्य पर हिन्दी साहित्यिकों की चुप्पी
रुड़की। यह एक तथ्य ही है कि इक्कीसवीं सदी के प्रथम वर्ष से विशेषतः हिन्दी के लेखकों में आत्मकेंद्रिता बढ़ी है। आत्मपरक लेखन ने हिन्दी के अधिकांश लेखकों के बोध को उनकी नासिका से आगे विकसित नहीं किया। समारोह , यात्राएँ ,पुरस्कार और इन सबके मध्य आत्मग्रस्त लेखन-प्रकाशन,यही प्रवृत्ति हिन्दी साहित्य में अधिक दृष्टिगोचर है। ये विचार हिन्दी के प्रोफेसर तथा साहित्यकार डॉ. सम्राट् सुधा ने आज ज़ारी एक बातचीत में व्यक्त किये हैं।
डॉ. सम्राट् सुधा ने कहा कि जिस तरह हाल ही में मेरठ के सौरभ हत्याकांड से हिन्दी के अधिकांश साहित्यकार तटस्थ हैं, वह अपने समाज के प्रति साहित्यकारों की सचेतता को प्रकट करता है।
उन्होंने कहा कि अपने फेसबुक की मात्र एक महिला लेखिका सुनीता सोलंकी मीना जी के अतिरिक्त मुझे मेरी वॉल की लेखिकाओं में से किसी की पोस्ट उपर्युक्त विषय पर नहीं दिखी , पुरुष भी इस पर चुप हैं ! हमारे पास सबसे रोचक ; मोहक ; आकर्षक ; लिजलिजा आदि विषय "प्रेम" है, कथित प्रेम का भयंकर प्रतिफल नहीं ! कोई भी यदि संवेदनशील रचनाकार है, तो वह मेरठ के हाल में उद्घाटित हुए सौरभ हत्याकांड से निर्लिप्त कैसे रह सकता है, विशेषतः प्रेम जैसे संवेदनशील विषयों के एकमात्र लेखक या लेखिका ! जो अपवाद हों , वे क्षमा करें कृपया !
डॉ. सम्राट् सुधा ने कहा कि सौरभ हत्याकांड अकेला हत्याकांड नहीं , इससे पहले अनेक योग्य पुरुषों द्वारा महिलाओं के कारण आत्महत्याएं अनेक लेखकों तथा अनेक लेखिकाओं के प्रेममय हृदय की इतना भी ना कंपा पायीं कि वे इस विषय पर लिख पाते ! यह तो बहुत बड़ी बात हो गयी , वे किसी के लिखे पर कमेंट ही कर पाते ! यह किस प्रकार की लेखकीय संवेदनशीलता है।
उन्होंने कहा कि यह एक तथ्य ही है कि इक्कीसवीं सदी के प्रथम वर्ष से विशेषतः हिन्दी के लेखकों में आत्मकेंद्रिता बढ़ी है। आत्मपरक लेखन ने हिन्दी के अधिकांश लेखकों के बोध को उनकी नासिका से आगे विकसित नहीं किया। समारोह , यात्राएँ ,पुरस्कार और इन सबके मध्य आत्मग्रस्त लेखन-प्रकाशन,यही प्रवृत्ति हिन्दी साहित्य में अधिक दृष्टिगोचर है।
उन्होंने कहा कि ऊपर्युक्त क्रूर, दुःखद व शोचनीय स्थिति का कटु कारण यह है कि हिन्दी लेखकों में से अधिकांश अध्ययन से दूर हैं और जो कुछ पढ़ भी रहे हैं, तो वह मात्र साहित्यिक ही हैं ! दिल पर लेने की बात नहीं, अपवाद हैं, परन्तु बहुसंख्यक या तो निरे लेखक हैं या फिर यत्किंचित साहित्य तक ही समिति ! वैश्विक पटल पर होने वाले परिवर्तनों से लेकर अपने समाज की दिल दहलाने वाली दुर्घटनाओं से इन बहुसंख्यक हिन्दी लेखकों का सम्बंध उतना ही है, जितना प्रायः हिंदुओं के त्योहारों से अन्य धर्मों का होता है और अन्य के त्योहारों से हिंदुओ का । सो, विश्वयुद्ध की आंशकायुक्त यूक्रेन का संकट हमारी सोच से बाहर की बात है; पोलैंड की ओर जाता निस्सहाय बच्चा हमारा नहीं ; युद्ध में मरते अबोध लोग हमारे नहीं ; भग्न होते घर हमारे नहीं ; अनिश्चित भविष्य से ग्रस्त हम नहीं ! जब हम ऐसे ही हैं, तो किसी औरत का अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति के टुकड़े कर देना हमें ऊबाता है, तो हम प्यार पर ही कविताएं लिखते रहें , वही ठीक है। हिंदी साहित्य में राजनीति करने वालों का अभाव नहीं, परन्तु अंतरराष्ट्रीय राजनीति और राष्ट्रीय सामाजिक घटनाएं कम की ही रुचि का विषय है।
धोखेबाज औरतों का पता बहुत कम चल पाता है, उनके 'शुभचिंतक' उनसे पीड़ित पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक हैं ! धोखे से मर चुके या टूट चुके पुरुषों का कोई राष्ट्रीय आंकड़ा भी नहीं ! हत्यारिन औरतों के लिए महिला आयोग महिला की नैतिक स्थिति को लेकर कुछ कर सकें , ऐसा कोई प्रावधान नहीं है ! स्त्री विमर्श की महान् लेखिकाएं ऐसे विषयों को या तो पढ़ती ही नहीं हैं या उनके महान् साहित्यिक उद्देश्यों के समक्ष ऐसे विषयों पर लिखना उन्हें छोटी बात लगती है।