जख्या है पहाड़ों का अनमोल मसाला - डॉ. कुकसाल
सबसे तेज प्रधान टाइम्स गबर सिंह भण्डारी
श्रीनगर गढ़वाल। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में जख्या एक लोकप्रिय मसाला है,जिसका वानस्पतिक नाम क्लीओमी विसकोसा Cleome viscosa है,यह क्लीओमेसी कुल का पौधा है। जख्या,आमतौर पर खरीफ बारानाजी फसलों विशेष रूप से झंगोरा,मंडुवा,चैती धान के साथ एक खरपतवार के रूप में अपने आप ही उगता है,इसके बीज को सब्जियों व अन्य पारम्परिक पकवानों में तड़के या छोंके के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसे पहाड़ी जीरा,जंगली सरसों,डाग मस्टर्ड,पीली हुर-हुर,हुल-हुल आदि नामों स भी जाना जाता है। इसका पौधा एक वर्षीय शाकीय 30-90 सेन्टिमीटर तक ऊंचा दृढ़,सीधा होता है। पौधे पर रोंये होते हैं तना, पत्तियां एवं फूल चिपचिपे होते हैं यदि हाथ से छू लिया तो कुछ देर तक हाथ भी चिपचिपा रहेगा और एक अजीब सी तीव्र गंध आयेगी। पत्तियों को मसलने से तीव्र गंध आती है। फूल पीले रंग के होते हैं। इसकी जड़ें ज्यादा फैली हुई नहीं होती हैं, इसे आसानी से उखाड़ा जा सकता है। पौधा सीधा बढ़ता है इसमें किसी तरह के कल्ले तो नहीं फूटते किन्तु तने से कई-कई शाखायें निकलती हैं। प्रत्येक शाखा पर फूल और फलियां लगने लगती हैं और फलियां अंदर से असंख्य दानों बीज से भरी होती हैं। दानों का आकार सरसों या राई की तरह किन्तु बनावट बिल्कुल भिन्न होती है। दानों का रंग भूरा व काला होता है और अगर थोड़ा कच्चा रहा तो दाने हल्के हरे दिखाई देते हैं। जख्या की फसल लगभग 60-70 दिनों में पक कर तैयार होती है। पकते समय पौधा पीला पड़ने लगता है पत्तियां स्वतः झड़ने लगती हैं। फसल तैयार होते ही पौधों को सुखाकर बीज झाड़कर जमा कर लेते हैं। यदि समय पर पौधों की कटाई नहीं हुई तो फलियों से दाने चटख कर खेत में ही बिखर जाते हैं। यह एक ऐसी फसल है जिसे किसान कभी बोते नहीं हैं किन्तु खेतों में हर साल बड़ी मात्रा में उगती है,बड़ी मात्रा में उगे कुछ पौधों को उखाड़कर फेंकना ही पड़ता है। खेत में बोई हुई फसलों के बीज सूखे से या बीज की खराबी से उगे नहीं खेत बंजर हो जायें किन्तु जख्या की फसल से खेत भर जायेगा। सूखे व अतिवृष्टि से भी यह नष्ट नहीं होती। खेतों,रास्तों या कहीं-कहीं जंगल में भी जख्या उगता है। नई बेकार मिट्टी में भी जख्या स्वतः उग आता है। बीज का उपयोग: जख्या के बीजों को तड़के के लिए इस्तेमाल किया जाता है,जो खाने को एक खास स्वाद देते हैं। जब इसे गर्म तेल में डाला जाता है तो यह चटकने लगता है और भोजन में एक विशेष सुगंध और कुरकुरापन लाता है। उत्तराखंड के स्थानीय व्यंजनों जैसे आलू गुटका,सब्जियों और दालों में इसका प्रयोग किया जाता है। जख्या के पौधे का हरा साग भी बनता है जो पौष्टिक होता है भले ही उत्तराखण्ड में जख्या का साग खाने की परंपरा नहीं देखी गयी है। औषधीय गुण-जख्या में एंटी-वायरल और एंटी-बैक्टीरियल गुण होते हैं, जो वायरल बीमारियों से बचाव में मदद करते हैं। पत्तियों का रस और घी साथ मिलाकर कान की सूजन की औषधी है। घावों को भरने में पत्तियां उपयोगी हैं। जख्या के दाने पेट के कीड़ों को मारने में सहायक होते हैं। निःसन्देह जख्या के तड़के का इस्तेमाल करने से पेट के रोगों से भी छुटकारा पाया जा सकता है। यदि जोड़ों का पुराना दर्द है तो जख्या के बीज पीस कर पुल्टिस लगा कर दर्द से छुटकारा पाया जा सकता है। जख्या तिलहन भी है,तिल या भंगजीर की तरह जख्या का तेल निकाला जा सकता है। जख्या अब सम्पूर्ण यादगारी प्रेम की भेंट भी बन रहा है। शहरों में रहने वाले नाते-रिश्तेदारों या बेटे-बेटियों के लिए गांव से माता-पिता या सास-ससुर जख्या जरूर भेजने लगे हैं। पहले बाजार में जख्या की मांग नहीं थी शहरी लोग इसे नहीं जानते थे,पहाड़ी के लोग जख्या के तड़के का आनन्द जरूर लेते थे किन्तु इसे मंडुआ की रोटी की तरह उपेक्षित समझते थे। किन्तु अब बारहनाजा फसलों,खान-पान व पोषण के प्रति जब से जागरूकता आयी है और प्रचार-प्रसार हुआ है,अब जख्या स्पेशल तड़का मसाला के रूप में बड़े-बड़े शहरों में भी लोकप्रिय बनने लगा है। कोटद्वार,हल्द्वानी,देहरादून,ऋषिकेश व दिल्ली जैसे शहरों व नेचर बाजार, सांस्कृतिक मेलों एवं पोषण स्टोरों से बिकने लगा है। स्पेशल तड़का मसाला जख्या आर्थिक दृष्टि से उपयोगी साबित होने लगा है। जख्या का भाव जीरा,धनिया व राई को पार कर गया है,200 से 300 रुपये प्रति किग्रा.जख्या बिकता है। इस तरह जख्या उत्तराखंड की आर्थिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फसल है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह शतप्रतिशत बिना लागत की फसल है। इसका बीज न तो खरीदना पड़ता है,न भण्डारित करना पड़ता है,न बोना पड़ता है। यदि हल भी न लगायें तब भी जख्या की फसल उग जायेगी। जख्या में प्रति 100 ग्राम निम्न पोषक तत्व पाये जाते हैं-जल 80.4,प्रोटीन 5.64, इथर सार 1.85,भस्म 3.75.प्रति स्क्रवी अम्ल 0.20,कैल्शियम 0.88.फासफोरस 0.073,लोहा 2.45 ग्राम। भंडारण-जख्या का लम्बे समय तक भंडारण किया जा सकता है।इसे सूखी और ठंडी जगह पर रखने से यह महीनों तक अपनी गुणवत्ता बनाए रखता है। जलवायु परिवर्तन व जंगली जानवरों से फसलों को होने वाले नुकसान सूखे व अतिवृष्टि का फसल पर कम प्रभाव तथा बाजार में जख्या की मांग को देखते हुए आने वाले समय में जख्या उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों की एक व्यवसायिक फसल हो सकती है।